Wednesday, September 1, 2021

कॉरोना के वेग में

 

आंधियों के वेग में जो खो गया वो कौन था?
राह चलते वह पथिक जो सो गया वो कौन था?
भूख से जो गिर गया शिशु तन भला वो कौन था?
दंगे में जो जल गया यौवन बता वो कौन था?
वो कौन थी जो चल पड़ी थी मौन गठरी बांध कर,
सूखी रोटी तोड़ता बच्चा भला वो कौन था?

आंधियों के वेग में जो काल कवलित हो गया
वटवृक्ष था जोमूक होकर इस धरा में खो गया
बूढ़ी आंखों का सहारा राह चलता वह पथिक,
बहन की उम्मीद आंखों में बसाये सो गया।
वटवृक्ष की जड़ से निकल जो चाहता था पनपना,
वो शिशु था भूख से लाचार हो जो गिर गया।
दिल्ली हो या पालघर, दंगे में देह को त्याग कर,

प्रश्न जलता छोड़, निर्दोष था जो चल गया।
चेहरे को अपने दुपट्टे से छिपा, एक गोद में एक पेट में कल को बिठा,

जो मौन चलती जा रही वो आह थी


सूखी रोटी तोड़ता वह बचपना, दूध सपने सा जहां पर हो गया।

मौन की अनुगूंज

 

क्या तुमने कभी नदियों का कोलाहल सुना है?

 चिड़ियों की चहचहाहट सुनी है?

मछली बाजार के शोर से निकल गाड़ियों की आवारा आवाजें सुनी हैं?

... सुनी होंगी

भला इनमें नया क्या है!

पर सदाबहार मौसम में, ठंड वाली रात में, लू के थपेड़ों में,

अंधियारे कमरे में ,पीपल के नीचे बैठ कभी सुनी है मौन की आवाज, मौन का संगीत.....?

क्या तुमने मौन की कोई ऐसी कविता सुनी है,

 जिसके कवि भी तुम हो, श्रोता भी तुम हो,‌

लय ताल सब तुम्हारे अपने हों ..

याद करो, जाने कितने ही विवादों के बाद,  फटकारों के बाद,

असफलताओंऔर नकारों के बाद ; जाने कितनी ही बार,

मौन ही तो था जो हमेशा था, है और रहेगा तुम्हारे साथ...

कब सुनाई नहीं देती मौन की आवाज!

हमेशा से साथ साथ ही चलता रहा मौन का गीत और तुम बने रहे अनजान...

                         ************

क्या तुमने कभी देखा है, किसी को मौन अपनी पीठ पर ढोते हुए चलता?

कभी देखा है रोटी को पानी के साथ मौन हो निगलता हुआ कोई इंसान?

किसी लाचार माँ को बच्चों के लिए मौन हो देर रात पत्थर पकाता और बच्चों का खाने के इंतजार में चुपचाप सो जाना?

कभी सुन सको तो सुनना

...और देखना।

सबको अपने जीवन में देखना-सुनना ही चाहिए  मौन लोगों को;

और तौलना चाहिए कि हमारा मौन उनके मौन से किस तरह अलग है;

कम से कम एक बार...

किसी एक मजबूर इंसान से छीन लेनी चाहिए उसकी चुप्पी और भर देना चाहिए उसके गले तक इतना सुख कि वो कभी हो सके मौन....

किसी एक दिन...

अपनी तमाम छीनी हुई चुप्पियों को लेकर बैठना चाहिए और तब तलाशना चाहिए उसमें आनंद...

जो आनंद मौन के गीत में है वो और किसी कविता में नहीं, किसी गीत में नहीं, किसी संगीत में नहीं....

Wednesday, May 18, 2016

बेटियाँ


जीवन का आधार जब होती हैं ये बेटियाँ, 
कोख में फिर जाने क्यों दम तोड़ती हैं बेटियाँ।।
लक्ष्मी दुर्गा शिवा कृष्णा होती है जब बेटियाँ,
बीच सड़क तार-तार होती फिर क्यों बेटियाँ।।
माँ बहनें भी तो कभी होती हैं ये बेटियाँ,
बहुरूप फिर क्यों जलाई जाती बेटियाँ।।
राष्ट्र चलाने के लिए सुषमा ममता जयललिता ,
प्रतिभा और इंदरा जैसी होती है ये बेटियाँ।।
युद्ध के मैदान में लक्ष्मी दुर्गावती बन,
 दुश्मनो के छक्के भी छुड़ाती हैं ये बेटियाँ।।
बेटे यदि राम हैं तो सीता होती बेटियाँ,
 घर का सिंगार भी तो होती है  बेटियाँ।।
बेटे यदि सचिन हैं तो साइना जैसी बेटियाँ,
किरण जैसी आईपीएस भी बनती है ये बेटियाँ।।
क्या मिलेगा बेटियों को मार कर सोचो अब,
घर के चिराग को ही जन्म देगी बेटियाँ।।
बंद करो बस अब स्त्री वध  रथ,
चाँद  पे पहुंच के दहाड़ रही बेटियाँ।।।

Saturday, November 16, 2013

फिर दिल उदास है, कोई अपना नहीं पास है.
कहने को तो ये सारी दुनिया अपनी है, पर कहाँ कोई अपना साथ है, 
 पीले गुलाबों की वो खुशबू जो तुमने  दिए  थे  कभी , 
समय गुजर  गया पर उन प्यारे लम्हों की कसक  साथ है,
सोचता था सब ठीक चल रहा, पर पता कहाँ था मस्ती के उन लम्हों के इस पार,
गम का शैलाब साथ है, आज फिर दिल उदास  है..... कोई अपना नहीं पास है......

Monday, May 2, 2011

ये साहिल और ये लहरे

कोई साहिल से दूर होती लहरों से पूछो,
जब लहरे आई थी क्या उमंग था,
क्या ख़ुशी थी, एक नया जोश था,
साहिल को भी पता न था,
ये जो लहरे उसके साथ हैं,
जाने उससे कितनी दूर चली जाएँगी,
चली जाएँगी ये लहरे फिर कभी ना आने के लिए, 
रोयेगा साहिल उस पल कितना सोचो जरा,
जब उसे पता चलेगा, ये लहरे उससे दूर चली गयी,
बहुत दूर.......
लहरे जो उससे दूर जा रही जरा उनकी भी बात करते हैं,
उन्हें क्या पता था उनका साहिल से मिलन क्षणिक होगा,
शायद हाँ, तभी तो कितनी तेज आई थी ये लहरे,
मिलन को बेताब ये लहरे जिन्हें दूर जाना था बहुत दूर...
ये जानते हुए भी एक क्षणिक मिलन की आस में,
कितनी उतावली थी ये लहरे, बेवस और लाचार थी ये लहरे...
क्षितिज के उस पार उन लहरों का कोई आशिक,
कर रहा है  इन्तजार, खो जाएँगी ये लहरे,
अपने आशिक के आगोश में और बेचारा साहिल,
देखता  रह जायेगा इन दूर जाती लहरों को,
जो फिर कभी ना आएँगी उसके पास,
कभी ना आएँगी उसके पास........

Tuesday, April 26, 2011

सोचा न था जिंदगी

मेरे होठों की ख़ुशी तुम थी,
मेरे आँखों की नमी तुम थी,
तुम थी मेरा दिवा स्वप्न,
तुम ही मेरा अरमान थी।

तुम बिन कैसे कट पायेगी,
सोचा न था जिंदगी।
एक चाह अधूरी रह जाएगी,
सोचा न था जिंदगी॥

जब दूर हुई तू मुझसे,
जैसे रात घनेरी छाई थी।
वो धुल भरी आंधी जाने क्यों,
मन में उस पल आई थी॥
भूल जाऊंगा सब दुःख प्रियवर,
तेरी ख़ुशी सजाने में।
जागूँगा मैं रात-रात भर,
तेरे स्वप्न सजाने में॥

जाने क्या-क्या दुःख देखूंगा,
सोचा न था जिंदगी।
एक प्यास अधूरी रह जाएगी,
सोचा न था जिंदगी...
एक चाह अधूरी रह जाएगी,
सोचा न था जिंदगी.............

Sunday, December 12, 2010

माँ का जवाब बेटी को

बेटा तू मुझे समझ ही नहीं पायी, तेरे लिए तो मैं दुनिया से लड़ लेती,
तूने एक पल में हमे बेगाना कर दिया, पापा को भी रुला दिया मेरी गुडिया तूने,
पापा आज बेटी की विदाई से नहीं रोये पगली, पापा रो रहे थे अपनी लाडली की नादानी पर,
पापा रो रहे थे अपनी मज़बूरी पर, पापा रो रहे थे बेटा आपकी नासमझी पर,
बेटा आपने कभी कोशिश तो की होती, हमसे बात तो की होती,
आपने हमे अपना नहीं समझा, बेटा आपने मेरा नेह भुला दिया,
पापा का प्यार भुला दिया, हो सकता है आपने जिसके लिए ऐसा किया वो हमसे अच्छा हो,
बेटा आपने कभी ये नहीं सोचा हमने आपके लिए क्या नहीं किया,
आप तो जिद्दी हो बस, जो मन आता वही करती आई न शुरू से,
बचपन में गुडिया के लिए जिद्द, बड़ी हुई तो लैपटॉप के लिए जिद्द,
आपने तो जिद्द भी नहीं की इस बार, कैसे समझ लिया हम नहीं मानते आपकी,
काश बेटा आपने एक बार हमसे पूछ लिया होता, जो हम न मानते तो आप हमसे दूर जाती,
बेटा बच्चो के लिए ही माँ बाप हमेशा से जीते हैं, पर आज मैं हार गयी,
हार गयी बेटा मैं खुद से, हार गयी मैं समाज से आज,
आज जब बाज़ार निकली, तो लगा मैंने कोई चोरी की हो बेटा,
तू क्यों इतनी दूर चली गयी मेरी लाल, मैं लड़ लेती अगर तूने एक बार मुझे बता दिया होता,

बेटा माँ- बाप बच्चो से रूठा नहीं करते, गुस्सा होते हैं पर मनाना तो आपको ही पड़ेगा,
आपने हमारे प्यार को भुलाया है, हमारे नेह को ठुकराया है,
हमें तो हक़ है की हम आपसे उदास हो पर एक बार हमसे बात तो करो बेटा ,
हम सरे गम भुला देंगे, आप पर खुशियाँ लुटा देंगे, पर शुरुआत आपको करनी होगी,
पहल आपको करनी होगी, आखिर आपने रुलाया है हमें,
अंत में हम तो बस यही दुआ करते हैं
हे ईश्वर!!!!!!!!!!! मेरी बच्ची को खुश रखना, उसे उसकी नादानी की सजा मत देना,
और बेटा जब दिल रोये तो एक बार याद जरुर करना क्युकि माँ का दिल बहुत बड़ा है,
वो सब भुला देगी, एक बार कह तो देना बेटा आप....................

माँ के नाम बेटी की पाती

ओ माँ तेरा रुदन!!! कैसे देख सकता है कोई???
माँ मैं तुझे समझ नहीं पाई, पापा आप से क्यों इतनी दूर चली आई ?
मैं क्यों डरी आपसे, आप क्या मेरा बुरा सोच सकती थी नहीं ना,
पर माँ मैं कमजोर हो गयी, अब समझ जाओ माँ मेरी प्यारी माँ,
सोचती हूँ माँ तू रोई होगी शायद जब सुना होगा मेरे बारे में,
माँ तेरा क्रंदन कितना दुःख हुआ तुझे माँ, पर मैं मजबूर थी माँ,

पापा से डरी थी मैं, नहीं नहीं पापा से नहीं शायद खुद से ही डरी थी,

तभी तो आँख नहीं मिला पा रही थी माँ उस दिन तुझसे,
तू जैसे भाप गयी थी मुझे, तुम्हे शायद शक हो गया था मुझ पर,
तेरी आँखों की नमी शायद कुछ बता रही थी , शायद मुझे रोक रही थी तेरी आँखे माँ
सुबह कैसे एक डरी चिड़िया की तरह थी माँ मैं उस दिन, तुम मुझे रोकना चाह रही थी माँ,
पर रोक ना पाई या मैं रुक न पाई, पापा मुझे माफ़ करना मैं बुरी नहीं पापा,
तेरी याद में आँखे नाम होती है माँ , तुमने कितने अरमान सजाये थे,

कितनी बाते होती थी, किन्तु पता नहीं क्यों मैं समझ नहीं पाई,

काश की मैं तुमसे कह कर आती माँ, तो क्या तुम मुझे रोक देती,
तुमने मुझे पराया तो नहीं समझा न माँ, सोचती हूँ माँ का दिल बहुत बड़ा है,
माँ मान जाएगी, गलती हुई मुझसे माँ मुझे माफ़ करना,

अभी मुझे तेरे प्यार की जरुरत है माँ, माँ तेरा नेह चाहिए मुझे,

तुम तो समझो माँ मैं कैसी अकेली पड़ी हूँ अभी, पापा को समझाना,
मुझे पापा का आशीष चाहिए, जिंदगी बहुत लम्बी है, आपके बिना कैसे जियेगी आपकी लाडली ??
मुझे माफ़ करना माँ मैं अबोध हूँ ................

Tuesday, February 16, 2010

कैसे छुटी ई गाँव बापू

२०-२५ साल के लम्बे अरसे बाद गाँव आया। वह पीपल का पेड़ गाँव के बाहर से ही अपनी भयानकता प्रकट कर रहा था। सहसा बचपन का मित्र सोहना याद आ गया- " इ पेड़ के नीचा कहियो मत ज ओइजा ब्रह्म रहेलन" लगा जीवंत वह सामने आकर मुझसे वही संवाद दुहरा रहा है. कदम तेज होने लगे, धड़कन तेज होने लगी; सच लगा कोई ब्रह्म मेरा इंतज़ार कर रहा है। लम्बी यात्रा की थकावट न जाने कहाँ गुल हो गयी?
मैं तेज कदमो से बढ़ा जा रहा था; इमली का वो पेड़, वो खट्टे- मीठे बेर, वो ताल का पानी सब याद आने लगे। सोहना, गनेशवा,रमुआ सब जीवंत जैसे सामने आने लगे अपने बाल रूप में। कितना मोहक था वो दृष्य; लाल-पिली गमछी में ताल में नहाना..............
सब बदल चुका है, वो मिट्टी का हमारा पुराना स्कूल अब ईट के छोटे स्कूल में बदल चुका है। अब बिरजू मास्टर नहीं रहे शायद ; उनकी बेंत याद आने लगी। "दू का दू, दू दुनी चार......." वो पहाड़े याद आने लगे । हाथ में बोरी और स्लेट और मास्टर जी के लिए आलू सब जैसे जीवंत हो रहे थे।
कदम बढ़ते बढ़ते घर करीब आ रहा था। दादी का चेहरा याद आने लगा, लगा वो सामने आ मुझे गले लगालेगी, रोते हुए पूछेगी -" भूला गइल दादी के का बबुआ?" माँ के पास दिए की रौशनी में रोटी, प्याज़, आचार... सब छूट गया , सच ये गाँव जो छूट गया।
घर के पास सब बदला था, सब टूट चूका था। मैंने घर के अन्दर कदम रखे, दरवाजे नाम की कोई चीज नहीं थी अब। कुए में झाँका तो लगा अंदर से शायद कोई इंतज़ार कर रहा है -- कोई आये मुझमे तरंग उठाये। घर के कमरे टूटने के लिए तैयार खड़े थे, वो देवस्थान था पर सामने दीये में न घी था ना बाती, न भोग लगाने को टीन के डब्बे में गुड... सब टूट चूका था। सामने सोनवा का घर था वो अब और मजबूत हो गया था। मिट्टी के बदले ईट का घर था और उपले वैसे ही कतारबद्ध सजे थे; शायद अब इनपर चाची के बदले सोनवा की पत्नी के हाथो के छाप थे.
हम बीस साल पहले गाँव छोड़ शहर चले गए थे; मुझे पढाई जो करनी थी। मैं और पिताजी शहर चले आये। माँ, दादी, चाचा सब गाँव ही रह गए। मैं बहुत रोया था जब सोहना, रमुआ, गनेशवा सब मुझे बस तक छोड़ने आये थे। सोहना की वह दुःख भरी आवाज़ " अब हम केकरा साथे ताल प जाएब?? के अब आम तोड़ भागी??? जल्दी इह, ब न??
गर्मी की छुट्टी में घर का माहौल भी गरम था । हिस्से- बटवारे की बात चलने लगी थी इस बार तो ज्यादा कुछ नहीं हुआ पर एक- दो बार के बाद माँ भी हमारे साथ शहर आ गयी। अब गाँव आना- जाना भी कम हो गया। पिताजी कभी-कभार हो आया करते थे। वह क्या बातें होती इससे मुझे दूर ही रखा जाता। फिर एक बार पता चला दादी इस दुनिया में नहीं रही। सच मन बहुत रोया था उस दिन।
इस बार पिताजी गाँव से आये तो तनावग्रस्त थे, घर बँट चुका था, जमीन बिखर चुकी थी। चाचा ने हमे या हमने चाचा को घर से बेदखल कर दिया था। चाचा को दालान मिला और हमे घर। इसके बाद गाँव आने- जाने का सिलसिला बिलकुल बंद हो गया..........
कुछ दिनों पहले गाँव की याद आने लगी। सोहना जैसे मुझे बुला रहा था। गनेशवा भी लगा कह रहा हो " अब कहियो न का ???" मैंने सोचा कुछ हो गाँव जाऊंगा। पिताजी भी शायद यही चाहते थे इसलिए मुझे रोक न पाए ; मैं साथ घर और जमीन के कागजात ले आया; घर और जमीन को औने -पौने किसी भी दाम पर बेच देना था।
............ अपने घर के बाद मैं चाचा के घर गया जो पहले हमारा दालान हुआ करता था। चाचा बाहर ही बैठे थे मुझे देखते ही गले लगा लिया मन भर आया उस पल मेरा । चाची के हाथ की पूड़ी - सेवई खाकर भी मैं न कह सका मुझे रोटी-प्याज़ दे दो चाची।
अगले दिन सुबह गनेशवा से मिला जो अब स्कूल का मास्टर है , बिरजू मास्टर से एकदम अलग। मैंने उससे सोहना के बारे में पूछा तो पता चला शादी के बाद सोहना दिल्ली गया है वही किसी फैक्ट्री में मजूरी करता है. बात घर- जमीन बेचने की थी पर मन पता नहीं क्यों सौदे की बात नहीं कर पा रहा था। मैंने हिम्मत कर गनेशवा से चर्चा की तो वह तैयार हो गया। कीमत बहुत ज्यादा नहीं लगे पर मुझे किसी भी कीमत पर बेचने के आदेश थे। मैं खेत पर गया, वहाँ नापी हुई.............
घर आया तो लगा जैसे कुआ, देवता सब मुझ पर रुष्ट हैं। मैंने कुवे में झाँका एक उदास चेहरा जैसे मूझे ऐसा करने से रोक रहा था। चेहरा दादी का था शायद। वो मुझसे जैसे पूछ रही थी--" बाबु तू सच्चे इ घर, जमीन, खेत सब बेच देबा? हमरो के बेच देबा बबुआ का????"
मैं सहम गया, गनेशवा से अगली बार आने का वादा कर मैं वापस शहर जा रहा हूँ , पर शायद मैं निरुत्तर होऊंगा जब पिताजी सवाल करेंगे... सच पूरी रात आज यही सोचूंगा, पिताजी को उत्तर क्या देना है??????????

--- मनीष भास्कर
केंद्रीय राजस्व कालोनी ;
/११०; आशियाना नगर;
पटना - ८००००२५