Tuesday, February 16, 2010

कैसे छुटी ई गाँव बापू

२०-२५ साल के लम्बे अरसे बाद गाँव आया। वह पीपल का पेड़ गाँव के बाहर से ही अपनी भयानकता प्रकट कर रहा था। सहसा बचपन का मित्र सोहना याद आ गया- " इ पेड़ के नीचा कहियो मत ज ओइजा ब्रह्म रहेलन" लगा जीवंत वह सामने आकर मुझसे वही संवाद दुहरा रहा है. कदम तेज होने लगे, धड़कन तेज होने लगी; सच लगा कोई ब्रह्म मेरा इंतज़ार कर रहा है। लम्बी यात्रा की थकावट न जाने कहाँ गुल हो गयी?
मैं तेज कदमो से बढ़ा जा रहा था; इमली का वो पेड़, वो खट्टे- मीठे बेर, वो ताल का पानी सब याद आने लगे। सोहना, गनेशवा,रमुआ सब जीवंत जैसे सामने आने लगे अपने बाल रूप में। कितना मोहक था वो दृष्य; लाल-पिली गमछी में ताल में नहाना..............
सब बदल चुका है, वो मिट्टी का हमारा पुराना स्कूल अब ईट के छोटे स्कूल में बदल चुका है। अब बिरजू मास्टर नहीं रहे शायद ; उनकी बेंत याद आने लगी। "दू का दू, दू दुनी चार......." वो पहाड़े याद आने लगे । हाथ में बोरी और स्लेट और मास्टर जी के लिए आलू सब जैसे जीवंत हो रहे थे।
कदम बढ़ते बढ़ते घर करीब आ रहा था। दादी का चेहरा याद आने लगा, लगा वो सामने आ मुझे गले लगालेगी, रोते हुए पूछेगी -" भूला गइल दादी के का बबुआ?" माँ के पास दिए की रौशनी में रोटी, प्याज़, आचार... सब छूट गया , सच ये गाँव जो छूट गया।
घर के पास सब बदला था, सब टूट चूका था। मैंने घर के अन्दर कदम रखे, दरवाजे नाम की कोई चीज नहीं थी अब। कुए में झाँका तो लगा अंदर से शायद कोई इंतज़ार कर रहा है -- कोई आये मुझमे तरंग उठाये। घर के कमरे टूटने के लिए तैयार खड़े थे, वो देवस्थान था पर सामने दीये में न घी था ना बाती, न भोग लगाने को टीन के डब्बे में गुड... सब टूट चूका था। सामने सोनवा का घर था वो अब और मजबूत हो गया था। मिट्टी के बदले ईट का घर था और उपले वैसे ही कतारबद्ध सजे थे; शायद अब इनपर चाची के बदले सोनवा की पत्नी के हाथो के छाप थे.
हम बीस साल पहले गाँव छोड़ शहर चले गए थे; मुझे पढाई जो करनी थी। मैं और पिताजी शहर चले आये। माँ, दादी, चाचा सब गाँव ही रह गए। मैं बहुत रोया था जब सोहना, रमुआ, गनेशवा सब मुझे बस तक छोड़ने आये थे। सोहना की वह दुःख भरी आवाज़ " अब हम केकरा साथे ताल प जाएब?? के अब आम तोड़ भागी??? जल्दी इह, ब न??
गर्मी की छुट्टी में घर का माहौल भी गरम था । हिस्से- बटवारे की बात चलने लगी थी इस बार तो ज्यादा कुछ नहीं हुआ पर एक- दो बार के बाद माँ भी हमारे साथ शहर आ गयी। अब गाँव आना- जाना भी कम हो गया। पिताजी कभी-कभार हो आया करते थे। वह क्या बातें होती इससे मुझे दूर ही रखा जाता। फिर एक बार पता चला दादी इस दुनिया में नहीं रही। सच मन बहुत रोया था उस दिन।
इस बार पिताजी गाँव से आये तो तनावग्रस्त थे, घर बँट चुका था, जमीन बिखर चुकी थी। चाचा ने हमे या हमने चाचा को घर से बेदखल कर दिया था। चाचा को दालान मिला और हमे घर। इसके बाद गाँव आने- जाने का सिलसिला बिलकुल बंद हो गया..........
कुछ दिनों पहले गाँव की याद आने लगी। सोहना जैसे मुझे बुला रहा था। गनेशवा भी लगा कह रहा हो " अब कहियो न का ???" मैंने सोचा कुछ हो गाँव जाऊंगा। पिताजी भी शायद यही चाहते थे इसलिए मुझे रोक न पाए ; मैं साथ घर और जमीन के कागजात ले आया; घर और जमीन को औने -पौने किसी भी दाम पर बेच देना था।
............ अपने घर के बाद मैं चाचा के घर गया जो पहले हमारा दालान हुआ करता था। चाचा बाहर ही बैठे थे मुझे देखते ही गले लगा लिया मन भर आया उस पल मेरा । चाची के हाथ की पूड़ी - सेवई खाकर भी मैं न कह सका मुझे रोटी-प्याज़ दे दो चाची।
अगले दिन सुबह गनेशवा से मिला जो अब स्कूल का मास्टर है , बिरजू मास्टर से एकदम अलग। मैंने उससे सोहना के बारे में पूछा तो पता चला शादी के बाद सोहना दिल्ली गया है वही किसी फैक्ट्री में मजूरी करता है. बात घर- जमीन बेचने की थी पर मन पता नहीं क्यों सौदे की बात नहीं कर पा रहा था। मैंने हिम्मत कर गनेशवा से चर्चा की तो वह तैयार हो गया। कीमत बहुत ज्यादा नहीं लगे पर मुझे किसी भी कीमत पर बेचने के आदेश थे। मैं खेत पर गया, वहाँ नापी हुई.............
घर आया तो लगा जैसे कुआ, देवता सब मुझ पर रुष्ट हैं। मैंने कुवे में झाँका एक उदास चेहरा जैसे मूझे ऐसा करने से रोक रहा था। चेहरा दादी का था शायद। वो मुझसे जैसे पूछ रही थी--" बाबु तू सच्चे इ घर, जमीन, खेत सब बेच देबा? हमरो के बेच देबा बबुआ का????"
मैं सहम गया, गनेशवा से अगली बार आने का वादा कर मैं वापस शहर जा रहा हूँ , पर शायद मैं निरुत्तर होऊंगा जब पिताजी सवाल करेंगे... सच पूरी रात आज यही सोचूंगा, पिताजी को उत्तर क्या देना है??????????

--- मनीष भास्कर
केंद्रीय राजस्व कालोनी ;
/११०; आशियाना नगर;
पटना - ८००००२५


Friday, February 5, 2010

मेरे द्वारा लिखी यह कविता आज के सामाजिक माहौल को दिखलाती है .... कैसे हम दुनिया के आगे बढ़ने की बात करते हैं , पर यथार्थ वही है...... आज भी कहीं न कहीं लडकियां शोषण का शिकार हो रही हैं .... क्या सच में ये अपनी उन्नति है???????????????

उन्नति --1
आज जमाना चाँद पर पहुँच गया,
अब डाक बाबु के
साइकिल की घंटी, मोबाइल से बजती है,
लडकियां शादी में पहले से कही ज्यादा सजती हैं,
सब बदल गया, रे
डियो से ट्रांसिस्टर तक,
श्यामपट्ट से कंप्यू
टर तक, मिट्टी के दिए से ट्युब लाइट तक,
सब बदल गया तभी तो ,
अब ज्यादा सजने वाली
लडकियां, घासलेट से कम ,
बिजली के करंट से ज्यादा मरने लगी...................




उन्नति --2
एक लडकी गोद में लिये, शर्म में गड़ रही होती है एक लडकी,उसे शायद पता नही गर्भ से भी आने का इन्तजार कर रही होती है एक लडकी,लडकी जो अभिशाप है, जिसका दुनियाँ में आना ही पाप है,
सब जानते हुए भी, एक लडके के इन्तजार में ,
एक और लडकी जनने को तैयार खडी होती है एक लडकी............................





Thursday, February 4, 2010


नन्ही चिड़िया के देश से

ओ नन्ही चिड़िया !!! सच बता तूने आना क्यू छोड़ दिया,
सच बता तूने वो गाना क्यू छोड़ दिया
कैसे भूल सकता हू तुम्ही तो सबसे पहले आकर मुझे जगाती थी,
खिडकी से मुझे देखती और अपनी प्यार तान सुनाती थी,
सच बात नन्ही चिड़िया तूने वो गाना क्यू छोड दिया
सच बता तूने आना क्यू छोड दिया????

तेरे बिना अब सुबह जैसे देर से होती है,
सुरज आ कर भी मुझे नहीं जगाता ,
चन्दा जाते हुए भी मुझे नहीं बताता,
चाय की प्याली तेरे बिना रास नहीं आती ,
अखबार के पन्ने तेरी याद मे अधुरे लगते है,
सच पीपल,आम,पलास अब सब सुने लगते है,
सच बता अपनी सखियों के साथ तूने आना क्यू छोड़ दिया,
सच बता तूने वो गाना छोड़ दिया?????

नन्ही चिड़िया सच बता कही तू ही तो न थी,
फुदकती,कलपती सच बता कही तू ही तो न थी,
कल ही तो देखा था मैंने, तेरा सघन व्योम एक छोटे पिंजरे में बंद,
तू कैसे उछ्ली थी मुझे देख कर उस बन्द पिन्जरे मे,
जैसे समझा रही हो मुझे , ये घर ही मेरी धरती मेरा आकाश है,
अपने बच्चों से दूर, अपने नीड़ से दूर,
अब यही मेरा आवास है, यही मेरा प्रवास है,

अब पता चला नन्ही चिड़िया तुने आना क्यु छोड दिया,
सच नन्ही चिडिया तुने वो गाना क्यु छोड दिया????

Monday, February 1, 2010

A Poem Written by Me On the Migration of Persons From "Gaon Se Sahar" :-

जिंदगी तेरी चाह में

जिन्दगी, तूने मुझे कहाँ ला दिया,
उस पीपल की छाँव से दूर ,
उस रेहट की आवाज से दूर,
यहाँ क्षितिज का पता नही चलता,
मिटटी की सौंधी खुशबू नहीं मिलती ,
नाही गुड की मीठी गंध ,
रन्जिश भरे समाज में कहाँ ला दिया?
जिन्दगी तुने मुझे कहाँ ला दिया..................

अब उस पीपल की छाँव याद आती है,
उन सखायो से झगड़े याद आते हैं,
याद आते है वो दिन जब हम गाते थे,
माँ से दूर खेलने भाग जाते थे,
आज वो माँ याद आती है, सखा याद आते हैं,
क्यूँ वो सब छोड़ यहाँ आ गया ????
जिंदगी तुने मुझे कहाँ ला दिया....................

यहाँ बचपन कागज की कश्तियाँ नहीं देखता,
यौवन सावन के झूले नहीं देखता,
लोग बुढ़ापा देखने को तरस जाते हैं,
सावन के पहले ही बदल यहाँ बरस जाते हैं,
बच्चे माँ के दूध को तरस जाते हैं,
पैसे की आग में न जाने कितनी युवक झुलस जाते हैं,
सच सभी जानते हैं, पर पता नहीं क्यूँ,
सब छोड़ यहाँ खीचे चले आते हैं.....
पैसे में बड़ी ताकत होती है ,
वो मिटटी, देश, माँ, सखा, कुछ नहीं जानता,

तभी तो जिंदगी तुने मुझे यहाँ ला दिया,
जिंदगी तुने मुझे कहाँ ला दिया???????????????

The Great Poem Written By "Ramdhari Singh Dinkar"

कृष्ण की चेतावनी

वर्षों तक वन में घूम घूम
बाधा विघ्नों को चूम चूम
सह धूप घाम पानी पत्थर
पांडव आये कुछ और निखर

सौभाग्य न सब दिन होता है
देखें आगे क्या होता है

मैत्री की राह दिखाने को
सब को सुमार्ग पर लाने को
दुर्योधन को समझाने को
भीषण विध्वंस बचाने को
भगवान हस्तिनापुर आए
पांडव का संदेशा लाये

दो न्याय अगर तो आधा दो
पर इसमें भी यदि बाधा हो
तो दे दो केवल पाँच ग्राम
रखो अपनी धरती तमाम

हम वहीँ खुशी से खायेंगे
परिजन पे असी ना उठाएंगे

दुर्योधन वह भी दे ना सका
आशीष समाज की न ले सका
उलटे हरि को बाँधने चला
जो था असाध्य साधने चला

जब नाश मनुज पर छाता है
पहले विवेक मर जाता है

हरि ने भीषण हुँकार किया
अपना स्वरूप विस्तार किया
डगमग डगमग दिग्गज डोले
भगवान कुपित हो कर बोले

जंजीर बढ़ा अब साध मुझे
हां हां दुर्योधन बाँध मुझे

ये देख गगन मुझमे लय है
ये देख पवन मुझमे लय है
मुझमे विलीन झनकार सकल
मुझमे लय है संसार सकल

अमरत्व फूलता है मुझमे
संहार झूलता है मुझमे

भूतल अटल पाताल देख
गत और अनागत काल देख
ये देख जगत का आदि सृजन
ये देख महाभारत का रन

मृतकों से पटी हुई भू है
पहचान कहाँ इसमें तू है

अंबर का कुंतल जाल देख
पद के नीचे पाताल देख
मुट्ठी में तीनो काल देख
मेरा स्वरूप विकराल देख

सब जन्म मुझी से पाते हैं
फिर लौट मुझी में आते हैं

जिह्वा से काढती ज्वाला सघन
साँसों से पाता जन्म पवन
पर जाती मेरी दृष्टि जिधर
हंसने लगती है सृष्टि उधर

मैं जभी मूंदता हूँ लोचन
छा जाता चारो और मरण

बाँधने मुझे तू आया है
जंजीर बड़ी क्या लाया है
यदि मुझे बांधना चाहे मन
पहले तू बाँध अनंत गगन

सूने को साध ना सकता है
वो मुझे बाँध कब सकता है

हित वचन नहीं तुने माना
मैत्री का मूल्य न पहचाना
तो ले अब मैं भी जाता हूँ
अंतिम संकल्प सुनाता हूँ

याचना नहीं अब रण होगा
जीवन जय या की मरण होगा

टकरायेंगे नक्षत्र निखर
बरसेगी भू पर वह्नी प्रखर
फन शेषनाग का डोलेगा
विकराल काल मुंह खोलेगा

दुर्योधन रण ऐसा होगा
फिर कभी नहीं जैसा होगा

भाई पर भाई टूटेंगे
विष बाण बूँद से छूटेंगे
सौभाग्य मनुज के फूटेंगे
वायस शृगाल सुख लूटेंगे

आखिर तू भूशायी होगा
हिंसा का पर्दायी होगा

थी सभा सन्न, सब लोग डरे
चुप थे या थे बेहोश पड़े
केवल दो नर न अघाते थे
ध्रीत्रास्त्र विदुर सुख पाते थे

कर जोड़ खरे प्रमुदित निर्भय
दोनों पुकारते थे जय, जय ..